दशमांश कुण्डली को D - 10 कुण्डली भी कहा जाता है. दशमांश कुण्डली का उपयोग व्यवसाय मे उन्नति , प्रतिष्ठा, सम्मान और आजीविका में बढोत्तरी, समाज में सफलता प्राप्त करने इत्यादि को देखने के लिए किया जाता है. दशमांश कुण्डली की विवेचना भी उतनी ही

वैदिक ज्योतिष में नवमांश कुण्डली को कुण्डली का पूरक माना गया है. यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कुण्डली मानी जाती है क्योंकि इसे लग्न कुण्डली के बाद सबसे महत्वपूर्ण माना गया है. जहां लग्न कुण्डली देह को दर्शाती है वहीं नवमांश कुण्डली आत्मा को

जन्म कुण्डली के पंचम भाव से संतान के बारे में पूर्ण रुप से विवेचन किया जाता है. इसी पंचम भाव के सूक्ष्म अध्ययन के लिए वैदिक ज्योतिष में सप्तांश कुण्डली का आंकलन किया जाता है. जन्म कुण्डली का पंचम भाव 30 अंश का होता है. इस 30 अंश को सात

द्वादशांश को D-12 कुण्डली भी कहा जाता है. द्वादशांश कुण्डली द्वारा माता-पिता के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है. इस कुण्डली का अध्ययन करने से माता पिता के जीवन के उतार चढावों के बारे में जानकारी मिलती है. इसके साथ ही साथ इससे हमें

वैदिक ज्योतिष द्वारा हम कुण्डली में स्थित शिक्षा के योग के बारे में भी जान सकते हैं. जातक की शिक्षा कैसी होगी और वह शैक्षिक योग्यता में किन उचाइयों को छूने में सक्षम हो सकेगा. आज के समय में सभी अपनी शिक्षा में उच्च शिखर पाने की चाहत रखते

गृहस्थ जीवन में सुख की चाह हर व्यक्ति के मन में समाई हुई होती है. जीवन का सच्चा सुख व्यक्ति को हर राह पर आगे ही लेकर जाता है परंतु परिवार में व्याप्त कलह - कलेश व्यक्ति के जीवन को कठीनाईयों एवं परेशानियों से भर देते हैं. इसी गृह कलेश से

चिकित्सा ज्योतिष के विषय में ज्योतिष शास्त्र में बहुत कुछ लिखा गया है. कुछ नियम पुराणों में भी दिए गए हैं. विष्णु वेद-पुराण के अनुसार भोजन करते समय जो नियम दिए गए हैं वह हमें बताते हैं कि भोजन करते समय व्यक्ति को अपना मुख पूर्व दिशा या उतर

वैदिक ज्योतिष में चंद्रमा को मन का कारक कहा जाता है और इसी के प्रभाव से प्रभावित हो व्यक्ति का मन हर समय चलायमान रहता है. उत्तर कालामृत में चंद्रमा को बुद्धि पुष्य सुगंध कहा है अर्थात चंद्रमा को बुद्धि (मन) का कारक कहकर संबोधित किया है.

व्यवसाय में कैसी स्थिति रहेगी इस विषय का आंकलन ज्योतिष द्वारा किया जा सकता है. ग्रहों की किस प्रकार की दृष्टि, युति या स्थान परिवर्तन कैसा हो रहा है, इन सभी तथ्यों के आधार पर कारोबार में सफलता-असफलता एवं लाभ हानि को ज्ञात किया जा सकता है.

केमद्रुम योग ज्योतिष में चंद्रमा से निर्मित एक महत्वपूर्ण योग है. वृहज्जातक में वाराहमिहिर के अनुसार यह योग उस समय होता है जब चंद्रमा के आगे या पीछे वाले भावों में ग्रह न हो अर्थात चंद्रमा से दूसरे और चंद्रमा से द्वादश भाव में कोई भी ग्रह

कुण्डली के बारह भावों में जलग्न को प्रमुख स्थान दिया जाता है. जातक परिजात के अनुसार लग्न, लग्नेश एवं लग्न के कारक सूर्य के बलवान होने पर जातक सुख सुविधा से संपन्न जीवन व्यतीत करता है. लग्न पर यदि सूर्य की दृष्टि हो तो जातक राजसेवा तथा

विवाह के समय का निर्धारण करने में कुण्डली में बन रहे योग विशेष भूमिका निभाते है. किसी व्यक्ति को वैवाहिक जीवन में कितना सुख मिलेगा यह सब कुण्डली के योगों पर निर्भर करता है. शुभ ग्रह, शुभ भावों के स्वामी होकर जब शुभ भावों में स्थित हों तथा

ज्योतिष ग्रंथों में अनेक स्थानों पर गंडांत अर्थात गण्डमूल नक्षत्रों का उल्लेख मिलता है. रेवती नक्षत्र की अंतिम चार घड़ियाँ और अश्वनी नक्षत्र की पहली चार घड़ियाँ गंडांत कही जाती हैं. ज्योतिष शास्त्र में गण्डमूल नक्षत्र के विषय में

जन्म के समय व्यक्ति अपनी कुण्डली में बहुत से योगों को लेकर पैदा होता है. यह योग बहुत अच्छे हो सकते हैं, बहुत खराब हो सकते हैं, मिश्रित फल प्रदान करने वाले हो सकते हैं या व्यक्ति के पास सभी कुछ होते हुए भी वह परेशान रहता है. सब कुछ होते भी

ज्योतिष एवं धार्मिक ग्रंथों में रत्नों की उत्पत्ति बारे में अनेकों कहानियाँ मिलती है. अग्नि पुराण में रत्नों की उत्पत्ति का संबंध वृत्रासुर के वध से जुडा़ है. इस दैत्य का वध करने के लिए महामुनि दधीचि के शरीर की हड्डियों का हथियार बनाया गया

ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में धन वैभव और सुख के लिए कुण्डली में मौजूद धनदायक योग या लक्ष्मी योग काफी महत्वपूर्ण होते हैं. जन्म कुण्डली एवं चंद्र कुंडली में विशेष धन योग तब बनते हैं जब जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश

जन्मकुंडली के माध्यम से जातक के अरिष्ट होने के योग या कारण को जाना जा सकता है. जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति, गोचर तथा दशा-अन्तर्दशा से अरिष्ट योगों को समझा जा सकता है. रोगों का विचार अष्टमेश और आठवें भाव में स्थित निर्बल ग्रहों से किया जाता

वैदिक ज्योतिष के अनुसार भचक्र में कुल 27 नक्षत्र होते हैं. इन सत्ताईस नक्षत्रों में कुछ नक्षत्र ऎसे होते हैं जिनका क्षेत्र अति संवेदनशील होता है और इन्हीं नक्षत्रों को गण्डमूल नक्षत्र कहा जाता है. सभी नक्षत्रों का अपना मूल स्वभाव होता है.

सृष्टि में विभिन्न प्रकार के रत्नों का भण्डार मानव को कल्याणकारी मंगल कामनाओं के साथ वरदान स्वरूप प्राप्त हुआ है. व्यक्ति रत्नों को अपने भाग्य को चमकाने के लिए धारण करता है, रत्न द्वारा वह स्वयं को सुखी तथा सम्पन्न रखने की चाहत रखता है.

इस संसार में जितने भी जीव हैं वह किसी ना किसी योनि से अवश्य ही संबंध रखते हैं. वैदिक ज्योतिष में भी इन योनियों के महत्व पर बल दिया गया है और इनका संबंध नक्षत्रों से जोड़ा गया है. योनियों के वर्गीकरण में अभिजीत सहित 28 नक्षत्रों को लिया गया