दीवाली के दिन की विशेषता लक्ष्मी जी के पूजन से संबन्धित है. इस दिन हर घर, परिवार, कार्यालय में लक्ष्मी जी के पूजन के रुप में उनका स्वागत किया जाता है. दीवाली के दिन जहां गृहस्थ और वाणिज्य वर्ग के लोग धन की देवी लक्ष्मी से समृद्धि और वित्तकोष की कामना करते हैं, वहीं साधु-संत और तांत्रिक कुछ विशेष सिद्धियां अर्जित करने के लिए रात्रिकाल में अपने


जन्म कुण्डली में ग्रह से मिलने वाले फल अनेक कारणों से प्रभावित होते है. जैसा कि सर्वविदित है कि ग्रह के फल दशाओं में प्राप्त होते है. चूंकि कई ग्रहों के पास दो-दो राशियों का स्वामित्व है. ऎसे में दशा अवधि में किस राशि के फल पहले प्राप्त होगें. यह जानने के लिये ग्रह की मूलत्रिकोण राशि का सर्वप्रथम अध्ययन किया जाता है. अब ये फल किस प्रकार के हो सकते है.


ज्योतिष शास्त्र में कुल नौ ग्रह है. तथा सभी ग्रहों की अपनी विशेषताएं है. ग्रह के फलों का विचार करने के लिये सबसे पहले ग्रह की शुभता व अशुभता निर्धारित की जाती है. ज्योतिष के सामान्त नियम के अनुसार शुभ ग्रह केन्द्र- त्रिकोंण भाव में होने पर शुभ फल देते है. इसके विपरीत अशुभ ग्रह इसके अतिरिक्त अन्य भावों में हों तो शुभ फलकारी कहे गये है.


ज्योतिष में कुल 12 भाव, 12 राशियां, 9 ग्रह, 27 नक्षत्र होते है. इन सभी के मेल से बनी कुण्ड्ली से व्यक्ति का भविष्य निर्धारित होता है. व्यक्ति को इन में से जिन ग्रहों की दशा - अन्तर्दशा का प्रभाव व्यक्ति पर चल रहा होता है. उन्हीं भाव से संबन्धित घटना घटित होने की संभावनाएं बनती है. सभी 12 भावों के अपने कारकतत्व होते है. जो स्थिर प्रकृ्ति के है.


पराशर ऋषि के अनुसार ग्रह अपनी स्थिति, युति व दृष्टि के अनुसार फल देते है. इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह केन्द्र भावों में व अशुभ ग्रह केन्द्र , त्रिकोण के अलावा अन्य भावों में शुभ फल देने वाले कहे गये है. कारक ग्रह अपने भाव को देखे तो भाव को बल प्राप्त होता है. भाव को भावेश देखे तब भी भाव बली होता है. ग्रह से शुभ ग्रह दृष्टि संबन्ध बनाये तो ग्रह की अशुभता में कमी व शुभता


शनि सभी ग्रहों में सबसे मन्द गति ग्रह है. इसलिये शनि के फल दीर्घकाल तक प्राप्त होते है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति के जीवन में किसी भी घटना के घटित होने के लिये शनि के गोचर का विशेष विचार किया जाता है. यहीं कारण है कि शनि को काल कहा जाता है.


किसी भी ग्रह के फलों का विचार करने के लिये ग्रह की स्थिति, युति व दृष्टि का विश्लेषण किया जाता है. ज्योतिष शास्त्र में सभी नौ ग्रहों के अपने गुण व विशेषताएं है. इसलिये ग्रह अपने गुण व विशेषताओं से भी प्रभावित होते है. जैसे:- गुरु को धन, ज्ञान व संतान का कारक ग्रह कहा जाता है. गुरु प्रभावित दशा अवधि में व्यक्ति को इन सभी कारक वस्तुओं की प्राप्ति की संभावनाएं


प्रत्येक जन्म कुण्डली में 12 भाव होते है. जिन्हें कुण्डली के "घर" भी कहा जाता है. सभी कुण्डली में भाव स्थिर रहते है. पर इन भावों में स्थित राशियां लग्न के अनुसार बदलती रहती है. कुण्डली के प्रथम भाव को लग्न भाव कहते है. तथा इसी भाव से कुण्डली के अन्य भावों की राशियां निर्धारित होती है. लग्न भाव केन्द्र व त्रिकोण भाव दोनों का होता है. तथा कुण्डली का आरम्भ भी इसी


वैदिक ज्योतिष से किसी भी ग्रह से मिलने वाले फलों को जानने के लिये संबन्धित ग्रह की स्थिति का संपूर्ण विश्लेषण किया जाता है. सभी ग्रह कुछ निश्चित भावों में होने पर शुभ फल देते है तथा कुछ भावों में ग्रहों की स्थिति मध्यम स्तर के शुभ फल दे सकती है. तथा इसके अतिरिक्त कुण्डली के कुछ विशेष भावों में ग्रहों की स्थिति सर्वथा प्रतिकूल फल देने वाली कही गई है


पराशरी ज्योतिष के सामान्य नियम के अनुसार ग्रहों के फल भाव, राशि व ग्रह पर अन्य ग्रहों की दृष्टि, युति व स्थिति से प्रभावित होते है. शनि तीसरे, छठे, दसवें व ग्यारहवें भाव में शुभ फल देते है. शनि आयु भाव अर्थात अष्टम भाव के कारक ग्रह है. इस भाव में शनि सामान्यता: अनुकुल फल देते है. शेष भावों में शनि के फलों को शुभ नहीं कहा गया है


ज्योतिष शास्त्र में शनि की स्थिति अन्य सभी ग्रहों की तुलना में सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है. क्योकि अन्य ग्रहों से मिलने वाले फल कुछ सीमित समय के लिय होते है. इसलिये अन्य ग्रहों के प्रभाव से व्यक्ति के जीवन की सामान्यता: सामान्य घटनाएं ही प्रभावित होती है. पर शनि इसके विपरीत फल देते है.


ज्योतिष में सभी ग्रह, प्रत्येक के लिये समान फल देने वाले नहीं होते है. जैसा कि सर्वविदित है कि सभी ग्रह जन्म कुण्डली में अपनी स्थिति, युति व दृ्ष्टि के अनुसार फल देते है. किसी ग्रह से प्राप्त होने वाले फलों का विश्लेषण करते समय इन सभी बातों के साथ साथ ग्रह की मित्र, शत्रु, सम क्षेत्री, उच्च स्थिति, नीच स्थिति तथा ग्रह अवस्था का भी विचार करना चाहिए.


शनि की साढेसाती व्यक्ति के मानसिक कष्टों में वृ्द्धि कर, व्यक्ति से सामान्य से अधिक मेहनत कराती है. इस अवधि में व्यक्ति को अपने कार्यो को पूर्ण करने के लिये बार-बार प्रयास करने पड सकते है. मेहनत के अनुरुप सफलता न मिलने के कारण कभी कभी व्यक्ति के स्वभाव में निराशा का भाव आने की भी संभावनाएं बनती है


विवाह करने से पूर्व वर-वधू की कुण्डलियों का अनेक प्रकार से मिलान किया जाता है. जिसमें अष्टकूट मिलान, ग्रह मिलान, कुण्डलियों के शुभ व अशुभ योग, मांगलिक योग व आधुनिक काल में रक्त मिलान भी इन मिलानों में सम्मिलित हो गया है. विवाह करने वाले वर-वधू दोनों का जीवन पूर्णता: सुखमय बना रहे, इसके लिये दोनों ही कुण्डलियों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया जाता


नव ग्रहों में एक शनि ग्रह को न्याय कर्ता की उपाधी प्राप्त है. जीवन में व्यक्ति के सभी अच्छे और बुरे कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न फल को प्रदान करने में शनि देव की अहम भूमिका है. धार्मिक ग्रंथों में शनि देव के न्याय और उनकी दृष्टि के संदर्भ में हमें अनेको कहानियां प्राप्त होती हैं. जिनमें शनि देव के प्रभाव से भगवान भी नहीं बच पाए थे. मनुष्य रुप धारण करने के पश्चात


किसी भी व्यक्ति की जन्म राशि से शनि जिस भी भाव में गोचर कर रहा होता है. उसके अनुसार शनि के पाया अर्थात पाद फल विचार किया जाता है. व्यक्ति के जन्म कुण्डली को आधार बनाकर शनि पाया के फलों का अध्ययन किया जाता है. निम्न रुप से जन्म राशि के अनुसार शनि पाया की शुभता या अशुभता का निर्धारण किया जाता है.


अक्सर बच्चों के बड़े होने पर उनके माता-पिता उनकी शादी के लिए चिंतित होते हैं कि बच्चों की शादी कब होगी. वास्तव में संसार में हर कार्य अपने निश्चित समय पर होता है. मतलब यह है कि व्यक्ति की शादी कम होगी यह भी ईश्वर जन्म के साथ लिखकर भेजता है


गुरु-चन्द्र का एक दुसरे से केन्द्र में होना गजकेसरी योग (Gaja Kesari Yoga) का निर्माण करता है. गजकेसरी योग व्यक्ति की वाकशक्ति में वृ्द्धि होती है. इसकी शुभता से धन, संमृ्द्धि व संतान की संभावनाओं को भी सहयोग प्राप्त होता है. गुरु सभी ग्रहों में सबसे शुभ ग्रह है.


गजकेसरी योग में गुरु-चन्द का बल निर्धारण किस प्रकार किया जाता है? गजकेसरी योग को धन योगों की श्रेणी में रखा जाता है. इस योग का निर्माण गुरु से चन्द्र के केन्द्र में होने पर होता है. यह योग जब केन्द्र भावों में बने तो सबसे अधिक शुभ माना जाता है. गजकेसरी योग व्यक्ति को धन, सम्मान व उच्च पद देने वाला माना गया है. गजकेसरी योग से मिलने वाले फल भाव, ग्रह


गुरु से चन्द्र का केन्द्र में स्थित होना, व्यक्ति की कुण्डली में गजकेसरी योग (Gaja Kesari Yoga) बनता है. गजकेसरी योग प्रसिद्ध धन योगों में से एक योग है. गजकेसरी योग जिस व्यक्ति की कुण्डली में होता है. उस व्यक्ति के धन, सुख, यश व योग्यता में वृ्द्धि होती है.


"गजकेसरी" योग (Gaja Kesari Yoga) के विषय में यह मान्यता है कि यह योग व्यक्ति को "गज के समान" स्वर्ण देने की संभावनाएं देता है. राजयोगों व धनयोगों के बाद इस योग के फलों का विचार किया जाता है. गजकेसरी योग जब पूर्ण रुप से किसि व्यक्ति कि कुण्डली में बन रहा हो तो व्यक्ति को गुरु व चन्द्र की दशा - अन्तर्दशा में इसके शुभ फल प्राप्त होते है.


ज्योतिष शास्त्र में बहुत से योगों के विषय में लिखा गया है. ज्योतिष में बनने वाले यह योग व्यक्ति को शुभ और अशुभ प्रभाव देने में सक्षम होते हैं. वैदिक ज्योतिष में शुभ योगों में गजकेसरी योग (Gaja Kesari Yoga) को विशेष रुप से शुभ माना जाता है. यह योग गुरु से केन्द्र अर्थात लग्न, चतुर्थ, सप्तम व दशम भाव में चन्द्र हो तो 'गजकेसरी योग' बनता है. गुरु जो धन, ज्ञान, समृद्धि,


कुण्डली के नवम भाव को भाग्य भाव कहा गया है . इसके साथ ही यह भाव पित्र या पितृ या पिता का भाव तथा पूर्वजों का भाव होने के कारण भी विशेष रुप से महत्वपूर्ण हो जाता है . महाऋषियों के अनुसार पूर्व जन्म के पापों के कारण पितृ दोष (Pitra Dosha) बनता है . इसके अलावा इस योग के बनने के अनेक अन्य कारण भी हो सकते है .


ज्योतिष शास्त्र में व्यक्ति की आयु जानने के अनेक विधियां प्रचलित है. जिनमें से कुछ को विशेष रुप से प्रयोग भी किया जाता है. आयु का निर्धारण करना नैतिक नियमों से उचित नहीं जान पडता परन्तु अगर किसी की जन्म कुण्डली में अल्पायु योग है तथा ऎसे व्यक्ति के मन में अपनी आयु को लेकर किसी प्रकार की कोई चिन्ता न रहे इसके लिये इस विधि से भी फल विचार कर


जीवन के आधारभूत तत्वों में से आय और व्यय महत्वपूर्ण होता है. हम सभी यह जानने के लिए उत्सुक रहते हैं कि हमारी आमदनी कैसी होगी तथा संचय की स्थिति क्या होगी. इन सभी बातों की जानकारी क्रमश: ग्यारहवें और बारहवें घर से मिलती है. ग्यारहवां भाव आय का घर माना जाता है तो बारहवां व्यय का। इन दोनों भावों के विषय में कृष्णमूर्ति पद्धति क्या कहती है आईये


ग्रह अगर नीच राशि में बैठा हो या शत्रु भाव में तो आम धारणा यह होती है कि जब उस ग्रह की दशा आएगी तब वह जिस घर में बैठा है उस घर से सम्बन्धित विषयों में नीच का फल देगा. लेकिन इस धारणा से अगल एक मान्यता यह है कि नीच में बैठा ग्रह भी कुछ स्थितियों में राजगयोग के समान फल देता है. इस प्रकार के योग को नीच भंग राजयोग के नाम से जाना जाता है.


हमारे शरीर के सभी अंगों पर किसी न किसी राशि का स्वामित्व रहता है. स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव का कारण भी राशियों व ग्रहों की युति और स्थिति पर निर्भर होता है ऐसा ज्योतिषशास्त्र का मत है. इस विषय में ज्योतिषशास्त्र कहता है कि जिस व्यक्ति की कुण्डली में नवम भाव का स्वामी आठवें घर में विराजमान होता है वह व्यक्त राशि आपके शरीर के विभिन्न अंगों पर राज करती


नवग्रहों में बृहस्पति को गुरु की उपाधी प्राप्त है. बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं और एक बहुत ही शुभ ग्रह भी हैं. जन्म कुण्डली में लग्न में स्थित बृहस्पति को एक हजार दोषों को समाप्त करने वाला भी कहा जाता है. बृहस्पति की दृष्टि को गंगाजल के समान पवित्र बताया गया है. इस प्रकार के शुभ प्रभाव देने के परिणाम स्वरूप बृहस्पति अर्थात गुरु को एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रह कहा


गुरू के घर परिवर्तन को ज्योतिषशास्त्र में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह सभी ग्रहों का गुरू होने के साथ ही साथ शुभ ग्रह भी है. इनके घर परिवर्तन से विवाह, संतान, ज्ञान, विद्या, आजीविका, स्वास्थ्य सहित धार्मिक विषय प्रभावित होते हैं. इस तरह जीवन के हर पहलू को गुरू प्रभावित करता है.


हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों का वर्णन मिलता है. यह सोलह संस्कार जीवन के हर एक पड़ाव में हमारे साथ चलते जाते हैं और इनके अनुरुप जीवन का स्वरुप भी स्पष्ट होता जाता है. हिन्दू धर्म में ये सोलह संस्कार जीवन से मृत्य तक के सफर में किसी न किसी रुप में आते रहते हैं. ये सलोह संस्कार इस प्रकार रहते हैं -


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